Uttarakhand: वीरांगना गुंजन: उपेक्षित बचपन को दे रही नया भविष्य

 ‘पिता के देहांत के बाद मुझे स्कूल छोड़ना पड़ा था। तीन-चार साल की उम्र तक पैरों में चप्पलें तक नहीं होती थीं। ऐसे में स्कूल फीस भरना मां के लिए बहुत मुश्किल था। सरकारी स्कूल में किसी तरह पढ़ाई की। इसी दौरान ठान लिया कि जो मेरे साथ हुआ, किसी और बच्चे के साथ नहीं होगा। मां-बाप नहीं होने पर आर्थिक चुनौतियों की वजह से किसी बच्चे को पढ़ाई नहीं छोड़ने दूंगी।’ बस फिर क्या था, समाज से अलग-थलग हो चुके बच्चों को मुख्य धारा से जोड़ने का जुनून सवार हो गया। यह कहानी वीरांगना स्कूल की संचालिका गुंजन बिष्ट की है।

हल्द्वानी के बरेली रोड स्थित मंगल पड़ाव पर वीरांगना नामक शिक्षा केंद्र संचालित है। यह शहर के निजी स्कूलों से अलग इसलिए है, क्योंकि यहां बच्चों को पढ़ने के लिए फीस नहीं देनी पड़ती है, इसके विपरीत पेंसिल, किताबें, यूनिफार्म स्कूल से मिलती हैं। यही नहीं, बच्चों की पढ़ाई में कोई बाधा न आए, इसलिए उनके घरों में स्कूल की तरफ से राशन तक भरवाया जाता है। इस स्कूल में ऐसे बच्चों को दाखिला मिलता है, जिन्हें समाज साथ नहीं बिठाना नहीं चाहता है। इस स्कूल को संचालित करती हैं गुंजन बिष्ट।

भीख मांगने और कूड़ा बीननेवाले बच्चों को शिक्षा से जोड़ा

सड़क पर गंदे, मैले कपड़े पहने भिक्षा मांगने वाले… और नालियों के किनारे व कूड़े के ढेर से प्लास्टिक बीनने वाले बच्चे गुंजन बिष्ट के स्कूल में पढ़ते हैं। गुंजन बताती हैं कि वर्ष 2000 में परिवार के साथ पहाड़ से हल्द्वानी आकर प्राइवेट जॉब करने लगीं। वर्ष 2008 में  शादी हो गई। इसी दौरान रोडवेज बस स्टेशन से निकलते समय गंदे कपड़े पहने एक मासूम बच्चे को भीख मांगते देखा। उनकी बचपन की टीस जाग गई। ठान लिया कि अब ऐसे बच्चों को समाज की मुख्य धारा से जोड़ना है। इसके लिए वह ढोलक बस्ती पहुंचीं, जहां के बच्चे दिन भर भीख मांगते, कूड़ा बीनते थे, लेकिन स्कूल नहीं जाते थे। उन्होंने बच्चों के मां-बाप को समझाया और स्कूल में दाखिला देने के लिए प्रेरित किया। बच्चों को बुनियादी शिक्षा देना शुरू की। इसी से वीरांगना शिक्षा केंद्र की नींव पड़ी। वर्ष 2013 में घर के नीचे गोदाम में शिक्षा केंद्र खोला और 2018 में इसका गैर सरकारी संगठन के रूप में पंजीयन कराया।

शुरू में बच्चों को दिहाड़ी दी, ताकि रोज आएं स्कूल 

गुंजन ने बताया शुरू में यह समस्या आयी कि वह जब बच्चों को घर से स्कूल लाने के लिए पहुंचती थीं, तो अक्सर मां-बाप कमाई नहीं होने के डर से बच्चों को इधर-उधर कर देते थे।   इस पर बच्चों को उनकी दिहाड़ी देनी शुरू की ताकि बच्चे रोज आएं। धीरे-धीरे बच्चे बढ़ते गए।  लेकिन चुनौती अभी भी बरकरार थी। इन बच्चों के न तो जन्म प्रमाण पत्र थे न आधार कार्ड। स्वास्थ्य टीके भी नहीं लगे थे। प्रशासनिक और स्वास्थ्य अफसरों के पास दौड़ लगाकर उनके जरूरी दस्तावेज बनवाए और टीके लगवाए। इसके बाद बच्चों का सरकारी स्कूलों में दाखिला कराया। धीरे-धीरे बच्चों और उनके मां-बाप को शिक्षा का महत्व समझ आने लगा।

MUSKAN DIXIT (20)

शिक्षा केंद्र में कक्षा एक से11 तक के पढ़ते 305 बच्चे 

गुंजन के शिक्षा केंद्र में इस समय 305 बच्चे पढ़ रहे हैं। वह गर्व से बताती हैं कि चार बच्चों का शिक्षा का अधिकार अधिनियम में प्रमुख कॉन्वेंट स्कूल में दाखिला हो गया है। एक बच्चा 11वीं और छह बच्चियां 9वीं कक्षा में पढ़ रही हैं। 25 बच्चों को स्कूल में दाखिले के लिए तैयार किया जा रहा है, बाकी बच्चे कक्षा एक से 10वीं तक की पढ़ाई करते हैं।

हर माह अपने वेतन से देती हैं 15 हजार रुपये

गुंजन नैनीताल कोऑपरेटिव बैंक में कैशियर हैं। वह अपनी सैलरी से हर माह 15 हजार रुपये घुमंतू और भिक्षावृत्ति छोड़कर पढ़ने वाले बच्चों की कॉपी-किताबों, स्टेशनरी, यूनिफॉर्म, जूते पर खर्च करती हैं। उनके पति भी खाली समय में बच्चों को पढ़ाते हैं।

वीर योद्धा तीलू रौतेली पुरस्कार से सम्मानित

गुंजन के जज्बे को सरकार ने भी सराहा है। वर्ष 2023 में उन्हें तीलू रौतेली पुरस्कार से सम्मानित किया गया। तीलू रौतेली गढ़वाल की वीर योद्धा थीं। तीलू से ही प्रेरित होकर गुंजन ने अपने स्कूल का नाम वीरांगना रखा है।

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